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________________ अष्टम परिच्छेद क्योंकि घर में से चोर चोरी करके वस्तु लिये जाता है, सो विना मारे कूटे छोड़ता नहीं। तथा श्रावक की स्त्री से कोई अन्य पुरुष अनाचार सेवता हुआ देखने में आवे, तो तिस को मारना पड़े। तथा कोई श्रावक राजा का नौकर है, तथा राजा के आदेश से युद्ध करने को जावे, तब प्रथम तो श्रावक शस्त्र चलावे नहीं, परन्तु जब शत्रु शस्त्र चलावे, मारने को आवे, तव तिस को मारना पड़े। तथा सिंहादि जानवर खाने को आवं, तब उनको मारना पड़े। तब तो संकल्प से भी हिंसा का त्याग नहीं हो सकता। इस वास्ते पांच विसवा में से भी अर्द्ध जाता रहा, पीछे अढाई विसवा दया रह गई। अर्थात् मात्र निरपराध त्रस जीव दृष्टिगोचर आवे, तिस को न मारूं, यह नियम रहा। इस के मी दो मेद हैं। एक सापेक्ष, दूसरा निरपेक्ष । इन में भी सापेक्ष निरपराध जीव की श्रावक से दया नहीं पलती है, क्योंकि श्रावक जब आप घोड़ा, घोड़ी, बैल, रथ, गाड़ी प्रमुख की सवारी करके घोड़ादिक को हाकता है, और घोड़े आदिक को चावुकादि मारता है। यहां घोड़े, तथा बैलादिकोंने इस का कुछ अपराध नहीं करा है। उनकी पीठ पर तो वह चढ रहा है, अरु यह मानता नहीं कि इन विचारे जीवों की चलने की शक्ति है, कि नहीं है ! जब वे जीव हलुवे चलते हैं तथा नहीं चलते हैं, तब अज्ञान के उदय से उनको गालियां देता है, और मारता भी है, यह
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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