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________________ ४८ जैनतत्त्वादर्श सूक्ष्म जीवों के शरीर को बाह्य शस्त्र का घाव नहीं लगता है। परन्तु इहां तो सूक्ष्म शब्द, स्थावर जीव-पृथ्वी, पानी, अग्नि, पवन और वनस्पतिरूप जो बादर पांच थावर हैं, तिन का वाचक है । अरु स्थूल जीव द्वींद्रिय, तींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय जानना। इन दोनों. मेदों में सर्व जीव आ गये। तिन सर्व की शुद्ध त्रिकरण से साधु रक्षा करता है। इस वास्ते साधु के बीसवा दया है । अरु श्रावक से तो पांच थावर की दया पलती नहीं है। क्योंकि सचित आहारादि के करने से अवश्य हिंसा होती है। इस से दश विसवा दया तो दूर हो गई, और शेष दश विसवा रह गई, एतावता एक त्रस जीव की दया रह गई। उस त्रसजीव की हिंसा के भी दो भेद हैं, एक संकल्प से हनना, दूसरा आरंभ से हनना। तिस में आरम्भ हिंसा का तो श्रावक को त्याग नहीं है, कितु संकल्प हिंसा का त्याग है। अरु आरम्भ हिंसा में ती केवल यल है, त्याग नहीं है, क्योंकि आरम्भ हिंसा तो श्रावक से होती है। इस बास्ते दश विसवा में से पांच विसबा फिर जाता रहा, एतावता संकल्प करके त्रस जीव हिंसा का त्याग है। फिर इस के भी दो भेद है, एक सापराध है, दूसरा निरपराध है। तिन में जो निरपराध जीव हैं, उसको नहीं हनना, अरु सापराध जीव को हनने की जयणा-यतना है। इस वास्ते साफ राध जीव की दया सदा सर्वथा श्रावक से नहीं पलती।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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