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अष्टम परिच्छेद कि यह कि यह कीड़ी जाती है, इस को मैं मारूं ऐसा संकल्प करके हने हनावे, तिस को आकुटि संकल्प कहते हैं। इस वास्ते निरपराध जीवों को विना कारण के न हनूं न हनाऊं, ऐसा संकल्प करे। तथा सांसारिक आरंभ समारम्भ करते समय तथा पुत्रादि के शरीर में कीड़े आदि जीव उत्पन्न होवें, तदा औषधादि करते समय यल से उपचार करे। तथा घोड़ा, बलद प्रमुख को चाबुकादि मारना पड़े तो उसका आगार रक्खे । तथा पेट में कृमि, गंडोला, तथा पग में नहरवा अर्थात् वाला, हरस, चम— प्रमुख अपने शरीर में उपजे, तथा मित्रादि के स्वजनादि के शरीर में उपजे, तिस के उपचार करने की यतना रक्खे। क्योंकि साधु को तो बस अरु स्थावर, सूक्ष्म अरु बादर, सर्व जीवों की हिंसा का नवकोटी विशुद्ध प्रमाद के योगों से स्याग है। इस वास्ते साधु को तो वीस विसवा दया है, परन्तु गृहस्थ से तो केवल सवा विसवा दया पल सकती है । सो शास्त्रकार लिखते हैं:
जीवा सुहमा थूला, संकप्पारंमओ भवे दुविहा । सबराह निरवराहा, साविक्खा चेव निरविक्खा ॥ अर्थ:-जगत् में जीव दो प्रकार के हैं, एक थावर, दूसरे
स। तिन में थावर के दो भेद हैं, एक मर्यादित अहिंसा सूक्ष्म, दूसरा बादर । तिनों में सूक्ष्म जीवों
की तो हिंसा होती ही नहीं, क्योंकि अति