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________________ ४६ जैनतत्त्वादर्श स्वभावममता, यही समस्त कर्मशत्रु के उच्छेद करने को अमोघ शस्त्र हैं । एतावता सकल परभाव की इष्टता दूर करी, स्वरूप सन्मुख उपयोग रक्खे, तिस का नाम भावप्राणतिपात विरमणव्रत कहिये। इसी का नाम भाव दया है । इहां स्थूल नाम मोटा-दृष्टिगोचर, हाले चाले, ऐसा जो त्रस जीव तिस को संकल्प करके न हनूंगा। हिंसा चार प्रकार की हैं। एक आकुट्टि-सो निषिद्ध वस्तु को उत्साह से करना, जैसे संपूर्ण फल का हिंसा के भेद भड़था करना श्रावक के वास्ते निषिद्ध हैं । अरु जिस ने जितने फल खाने में रक्खे हैं, उन फलों में से भी किसी फल का भडथा नहीं करना । अरु जो मन में उत्साह धरके भडथा करे, तो आकुट्टि हिंसा होवे । दूसरी दहिंसा-सो चित्त के उन्मत्तपने से मन में गर्व धरके दौडे, जैसे गाडी घोडा प्रमुख दौडते हैं। तो दर्पहिंसा होवे । तीसरी संकल्प हिंसा-जान कर काम भोग में तीव्र अमिलाषा से काम का जोश चढ़ाने के वास्ते त्रस जीव की हिंसा करे, किसी जीव को मार कर गीली, माजून प्रमुख बना कर खावे। चौथी प्रमाद हिंसा-सो अपने घर का काम काज-रांधना पीसना आदि करते समय त्रस जीव की "हिंसा हो जावे । इन चारों हिंसाओं में प्रथम हिंसा तो विलकुल नहीं करनी । तिस वास्ते यहां संकल्प करे आकुट्टि तथा दर्प करके त्रस जीव के हनने का त्याग करे । जैसे
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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