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अष्टम परिच्छेद
अष्टम परिच्छेद
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इस परिच्छेद में चारित्र का स्वरूप लिखते हैं:चारित्र धर्म के दो भेद हैं। एक सर्वचारित्र, दूसरा देशचारित्र, उस में सर्वचारित्र धर्म तो साधु में होता है, तिस का स्वरूप गुरुतत्त्व परिच्छेद में लिख आये हैं । तहां से जान लेना । अरु देश चारित्र के बारह भेद हैं, सो गृहस्थ का धर्म है । अब बारह व्रतों का किंचित् स्वरूप लिखते हैं; तिन में प्रथम स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत का स्वरूप लिखते हैं ।
प्रथम प्राणातिपातविरमण व्रत के दो भेद हैं । एक द्रव्यप्राणातिपातविरमण व्रत, दूसरा भावप्राणातिपात प्राणतिपातविरमण व्रत । तिन में द्रव्यप्राणाविरमणत्रत तिपातविरमण व्रत ऐसा है, कि पर जीवों को अपनी आत्मा समान जान कर तिन के दश द्रव्यप्राणों की रक्षा करे। यह व्यवहार दयारूप है । तथा दूसरा भावप्राणातिपातविरमण व्रत — सो अपना जीव कर्म के वश पड़ा हुआ दुःख पाता है, अपने जो भाव प्राण-ज्ञान, दर्शन, चारित्रादिक, तिन का मिथ्यात्व कषायादिक अशुद्ध प्रवर्तन से प्रतिक्षण घात हो रहा है, सो अपने जीव को कर्म शत्रु से छुड़ाने के वास्ते उपाय करना । सो उपाय यह है - कि आत्मरमणता करे, परभावरमणता को त्यागे, शुद्धोपयोग में प्रवर्ते, कर्म के उदय में अव्यापक रहे, एक
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