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________________ अष्टम परिच्छेद ५१ तथा चूल्हे के ऊपर अरु पानी के स्थान पर चन्द्रवा अर्थात् छत पर कपड़ा ताने । तथा खाने को जो अन्न लावे, सो भींजा हुआ न लावे, शुद्ध नवा अन्न खाने को लावे | कदापि एक वर्ष के उपरांत का अन्न लावे, तो जिस में जीव न पड़े होवें, सो अन्न लावे । तथा पानी के छानने के वास्ते बहुत गाढा दृढ वस्त्र रक्खे । एक प्रहर पीछे पानी को फिर छान लेवे, जो जीव निकले, उसको, जिस कुंवे का उसी में डाल देवे । तथा वर्षा ऋतु में बहुत से उत्पत्ति हो जाती है, तिस वास्ते गाड़ी रथ की करे। क्योंकि जहां चक्र फिरता है, तहां असंख्य विध्वंस होता है । हरिकाय, बहुवीज फल, त्रस संयुक्त फल न खावे । तथा खार में माकड़ प्रमुख जीव पड़ जाते हैं, इस वास्ते धूप में न रक्खे किन्तु दूसरी खाट बदल लेवे । तथा सड़ा हुवा अन्न धूप में न रक्खे, जूठा पानी - अन्न के संसर्ग वाला मोरी में न गेरे, क्योंकि मोरी में बहुत से जीव उत्पन्न हो जाते हैं, अरु मोरी के सड़ जाने से घर में वीमारी हो जाती है । तथा चैत्रत्रदि एकम से लेकर, पचों वाला शाक आठ मास तक न खावे । क्योंकि पत्रशाक में बहुत त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । उसमें एक तो त्रस जीवों को हिंसा होती है, अरु दूसरे उन त्रस जीवों के खाने से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । अरु शीत काल में एक भास तथा उष्णकाल में बीस दिन, तथा वर्षा ऋतु में पंदरह पानी होवे, जीवों की सवारी न जीवों का
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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