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________________ ५२ जैनतस्वादर्श आदि की रक्खे, बहुत जल से दिन के उपरांत की बनी हुई मिठाई - पक्वान न खावे; क्योंकि उसमें त्रस स्थावर जीव उत्पन्न होते हैं, अरु खाने वाले को रोगोत्पत्ति भी हो जाती है । तथा वासी अन्न-रोटी आदि न खावे, क्योंकि इन में जीवोत्पत्ति हो जाती है, रोग भी हो जाता है । और बुद्धि मंद हो जाती है । तथा घर मैं सावरनी अर्थात् बुहारी कोमल सण जिस से कि जीव न मरे । तथा स्नान भी अरु रेतली भूमिका में करे, तथा मोटी स्नान करे, और स्नान का पानी मैदान में गेर देवे | मोरी पर बैठ के स्नान न करे । तथा जहां तक थोडे पाप वाला व्यापार मिले, तहां लग महापापकारी व्यापार या नौकरी आदिक न करे । तथा किसी का हक़ तोड़े नहीं। घर में जूठे अन्न का पानी दो घड़ी के उपरांत न रक्खे, क्योंकि उसमें जीव उत्पन्न हो जाते हैं । तथा जो वस्तु उठावे, तथा रक्खे तब पहिले उस जगाको नेत्रों से देख लेवे, पूंछ लेवे, पीछे से वस्तु रक्खे । मोटी मोरी में जल नहीं गेरे । तथा दीवा बत्ती जलावे, तो फानसादि के यत्न से जीव की रक्षा करे । तथा जिस पात्र से पानी पीवे तो, फिर वो जूठा पात्र जल में न डबोवे, क्योंकि उससे मुख की लाल लगने से जीव उत्पन्न हो जाते हैं । अरु बहुतों की जूठ खाने पीने से बुद्धि संक्रमण हो जाती है । अरु कई एक रोग ऐसे हैं कि, जिस रोगी का जूठा खावे पीवे, न करे, परात में बैठ कर थोड़ा थोड़ा करके
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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