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अष्टम परिच्छेद उस रोगी का खाने पीनेवाले को लग जाता है; जैसे कि कुष्ट, क्षय, रेज़श, शीतला वगैरह । इस वास्ते सारी वस्तु झूठी नहीं करनी । तथा बहुतों के साथ एकठा न खावे । और मटके में से पानी काढ़ने के वास्ते दंडीदार काठ का चट्ट रक्खे । इत्यादि शुद्ध व्यवहार में प्रवतें, तो श्रावक के दया सवा विसवा होवे । इसी रीति से श्रावक का प्रथम व्रत शुद्ध है। इस व्रत के पांच अतिचार अर्थात् पांच कलंक हैं, तिन को वजे । सो लिखते हैं।
प्रथम वध अतिचार-क्रोध के उदय से अरु बल के अभिमान से निर्दय होकर गाय, घोड़ा प्रमुख को कूटे, मार के चलावे।
दूसरा बंध अतिचार-गाय, बलद, बछड़ा प्रमुख जीवों को कठिन-जबरदस्त बंधन से बांधे, वो जीव कठिन बंधन से अति दुःख पाते हैं, कदाचित् अग्नि का भय होवे तो जल्दी छूट नहीं सकते, और मर भी जाते हैं। इस वास्ते कठिन बंधन भी अतिचार हैं। अतः जानवर को ढीले बंधन से बांधना चाहिये । तथा कोई गुनेगार मनुष्य होवे, उस को भी निर्दय हो कर गाढ़े बंधन से न बांधना चाहिये ।
तीसरा छविच्छेद अतिचार-बैल प्रमुख का कान, नाक, . छिदावे, नत्थ गेरे, खस्सी करे। - चौथा अतिभारारोपण अतिचार-बैल प्रमुख के ऊपर
जितना मार लादने की रीति है, तिस से अधिक भार लादे,