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जैनतत्त्वादर्श
में गुरु की भक्ति करनी ऐसे लिखी है
अभ्युत्थानं तदालोकेऽमियानं च तदागमे । शिरस्यंजलिसंश्लेषः स्वयमासनढौकनम् ॥ १ ॥ आसनाभिग्रहो भक्त्या, बन्दना पर्युपासनम् । तद्यानेऽनुगमश्चेति, प्रतिपत्तिरियं गुरौ ॥ २ ॥
[ यो० शा०, प्र० ३, लो० १२५, १२६] अर्थः- १. गुरु को आते देख के खड़ा हो जाना, २ . सन्मुख लेने जाना, ३. मस्तक पर अंजलि बांध कर प्रणाम करना, ४. गुरु को आसन देना, ५. जब गुरु आसन पर बैठ जावे लब मैं आसन पर बैठूंगा, ऐसा अभिग्रह लेवे, ६. भक्ति से वंदना पर्युपासना करे, ७. जब गुरु जावे, तत्र पहुंचाने जावे, ८. यह गुरु की भक्ति है । तथा १. अड के गुरु के बराबर न बैठे, २. आगे न बैठे, ३. गुरु की तर्फ पीठ दे कर न बैठे ४. पग ऊपर पग चढ़ा करके गुरु के पास न बैठे । ५. पाठीभार के न बैठे । ६. हाथों से जंघा को लपेट के न बैठे, ७. पग पसार के न बैठे, ८. विकथा न करे, ९. बहुत हसें नहीं, १०. नींद न लेवे, ११. मन, वचन, काया को गोप करके हाथ जोड़ भक्ति बहुमान पूर्वक उपयोग सहित सुधर्म को सुने क्योंकि गुरु पासों धर्म सुनने से इस लोक तथा
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गुरु विनय