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दशम परिच्छेद
३४३ पूरणी, पाषाणदल से कपाट लाने, शिला फोड़नी, चिनने प्रमुख में महा आरम्भ होता है, इस वास्ते जिनमन्दिर न बनाना चाहिये ! ऐसी आशंका न करनी। क्योंकि यन से प्रवृत्त होने से निढोषता है। अरु नाना प्रतिमास्थापन, पूजन, संघसमागम, धर्मदेशना करनी, दर्शन व्रतादि की प्रतिपत्ति, शासनप्रभावना, अनुमोदनादि, अनंत पुण्य का हेतु होने से तथा शुभोदय का हेतु होने से कूप के दृष्टांत से महा लाभ का कारण है।
अरु जीर्णोद्वार में ऐसी रीति है । यतःनवीनजिनगेहस्य, विधाने सत्फलं भवेत् । तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारेण जायते ॥ १॥ जीणे ममुद्धृते यावत्तावत्पुण्यं न नूतने । उपमदों महांस्तत्र, बचत्यख्यातिधीरपि ॥ २ ॥
तथा
राया अमचसिट्टी, कोडंत्रीए वि देसणं काउं। जिण्णे पुन्चाययणे, जिणकप्पीयाधि कारवइ ॥ १॥
अर्थ:--राजा, मन्त्री, श्रेष्ठी, कौटुंविकों को उपदेश देकर जीर्ण जिनमन्दिर का उद्धार जिनकल्पी साधु मी करावे । जो जिनभवन का उद्धार करे, तिसने भयंकर संसार