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________________ 506 जैनतत्त्वादर्श स्थंमतीर्थ में आये / तहां पहिले श्री विजयचंद्रसूरि गीताथों को पृथक् पृथक् वस्त्र के पोटले देता है, और नित्य विगय खाने की आज्ञा देता है, और वस्त्र धोने की तथा फल, शाक लेने की और निर्विकृत के प्रत्याख्यान में विगयगत का लेना कहता है / और आर्या का लाया आहार साधु खावे, यह आज्ञा देता है, और दिन प्रति द्विविध प्रत्याख्यान और गृहस्थों के अवर्जने वास्ते प्रतिक्रमण करने की आज्ञा देता है। और संविभाग के दिन में तिसके घर में गीतार्थ जावे, लेप की संनिधि रखनी, तत्कालोष्णोदक का ग्रहण करना, इत्यादि काम करने से कितनेक साधु शिथिलाचार्यों को साथ लेकर सदोष पौषधशाला में रहता था। इन विजयचंद्राचार्य की उत्पत्ति ऐसे है। मंत्री वस्तुपाल के घर में विजयचंद्र नामा दफतरी था। वो किसी अपराध से जेलखाने में कैद हुआ, तब देवभद्र उपाध्यायने दीक्षा की प्रतिज्ञा करवा कर छुड़ा दिया। पीछे तिसने दीक्षा लीनी / सो बुद्धिबल से बहुश्रुत हो गया। तब मंत्री वस्तुपालने कहा कि ये अभिमानी हैं, इस वास्ते सूरि पद के योग्य नहीं हैं। इस तरह मना करने पर भी जगचंद्रसूरिजीने देवभद्र उपाध्याय के कहने से सूरि पद दे दिया। यह देवेन्द्रसरि का सहायक होवेगा, ऐसा जान कर सूरि पद दिया / पीछे वह विजयचंद्र बहुत काल तक देवेंद्रसूरि के साथ विनयवान् शिष्य की तरह वर्तता रहा / परन्तु जब मालव देश से देवेंद्र
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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