________________ द्वादश परिच्छेद 505 किया, और हीरला जगचंद्रसूरि बिरुद पाया / क्योंकि जिनोंने चित्तौड़ के राजा की राजधानी अघाट अर्थात् अहड़ में बचीस दिगम्बराचार्यों के साथ वाद किया, हीरे की तरे अभेद्य रहे / तव राजाने हीरला जगचंद्रसूरि ऐसा विरुद दिया / तथा जिनोंने यावज्जीव आचाम्लतप का अभिग्रह करा / जव बारा वर्ष तप करते बीते, तब चित्तौड़ के रानाने तपा विरुद दिया। संवत् 1285 के वर्ष में बडगच्छ का नाम तपगच्छ हुआ, यह छठा नाम हुआ। 1. निर्ग्रन्थ, 2. कोटिक, 3. चन्द्र, 4. वनवासी, 5. वडगच्छ, 6. तपागच्छ, इन छ नामों के प्रवृत्त होने में छ आचार्य कारण हुये हैं, तिनके नाम अनुक्रम से लिखते है:१. श्री सुधर्मास्वामी, 2. श्री सुस्थितसूरि, 3. श्री चन्द्र सरि, 4. श्री सामंतभद्रसूरि, 5. श्री सर्वदेवसूरि, 6. श्री जगञ्चन्द्रसूरि। श्री जगच्चन्द्रसूरि पट्टे देवेन्द्रसूरि हुए। सो मालवे की उज्जैन नगरी में जिनचंद्र नामा बड़े सेठ का श्रीदेवेन्द्रसूरि तथा वीरधवल नामा पुत्र, तिसके विवाह निमित्त श्रीविजयचन्द्रसूरि महोत्सव हो रहा था, तब वीरधवल कुमार को प्रतिबोध करके संवत् 1302 में दीक्षा दीनी, तिस पीछे तिसके भाई को भी दीक्षा दे कर चिरकाल तक मालव देश में विचरे / तिस पीछे गुर्जर देश में श्री देवेन्द्रसूरि