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________________ ૧ जैन तत्त्वादर्श विहार करते हैं, और उपदेश देते हैं, चर्चा करते हैं, तथा पूजन, प्रतिलेखन करते हैं । यद्यपि नदी नाले उतरने पड़ते हैं, तहां योगों की चलनता से आश्रव होता है, तो भी चेतन स्वरूपानुयायी रहता है, जिनाज्ञा पालता है, और कषायस्थान मंद करता है, स्वच्छन्दता दूर करता है, तथा धर्म प्रवृत्ति की वृद्धि करता है । यह स्वदया के वास्ते शुभाश्रव साधु भी अपने कल्प प्रमाणे आचरण करता है । परंतु यह आश्रव साधक दशा में बाधक नहीं है । ४. परदया -- छ काय के जीवों की रक्षा करनी । जहां स्वदया है, तहां परदया तो नियम करके है, अरु जहां पर दया है, तहां स्वदया की भजना है, अर्थात् होवे भी, नहीं भी होवे । - - ५. स्वरूपदया - जो इहलोक परलोक के विषयसुख वास्ते तथा लोकों की देखादेखी करके जीव रक्षा करे, विषय सुख तो मिल जाते वृद्धि होती है । यह देखने सो खरूपदया है । इस दया से हैं, परन्तु मैंडकचूर्णवत् संसार की में तो दया है परन्तु भाव से हिंसा ही है । ६. अनुबंधदया -- श्रावक बड़े आडम्बर से मुनि को वंदना करने को जावे, तथा उपकार बुद्धि से दूसरे जीवों को सन्मार्ग में छाने वास्ते आक्रोश -- ताडनादि करे, किसी को शिक्षा देवे। यहां देखने में तो हिंसा है, परन्तु अंत में स्वपर को लाभ का कारण है, इस वास्ते यह दया है । जैसे
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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