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सप्तम परिच्छेद साधु, आचार्य, अपने शिष्य शिष्याओं को शिक्षा देता है, किसी को भूल याद कराता है, तथा किसी को अनुचित काम से मना करता है, किसी को एक बार कहता है, अरु किसी को वारम्गर शिक्षा देता है, किसी ऊपर क्रोध मी करता है, शासन के प्रत्यनीक को अपनी लब्धि से दंड देता है, इत्यादि कामों में यद्यपि हिंसा दीखती है, तो भी फल दया का हैं।
७. व्यवहारदया-विधिमार्गानुयायी जीव दया पाले, सर्व क्रियाकलाप उपयोगपूर्वक करे, सो व्यवहारदया है।
८. निश्चयदया-शुद्ध साध्य उपयोग में एकल भाव, अमेदोपयोग साध्य भाव में एकताज्ञान, सो भावदया । इस दया सेती ऊपर के गुणस्थानों में जीव चढ़ता है, तिस वास्ते उत्कृष्ट है। इत्यादि अनेक प्रकार से दया के स्वरूप, विज्ञानपूर्वक सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, वृत्ति, इस पंचांगीसम्मत, प्रत्यक्षादि प्रमाणपूर्वक नैगमादिनय, नामादि निक्षेप, सप्तभंगी, ज्ञाननय, क्रियानय, तथा निश्चयव्यवहारनय, तथा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक, इत्यादि उभय भाव में यथावसरे अर्पित, अनर्पित नयनिपुणता से मुख्य गौण भावे उभयनयसम्मत, शुद्धस्याद्वादशैली विज्ञानपूर्वक, श्रीसिद्धांतोक्त दान, शील, तप, भावनारूप शुभ प्रवृति, तिस का नाम शुद्ध व्यवहारधर्म कहिये हैं।