________________
जैनतस्वादर्थ तथा दूसरा निश्चयधर्म-सो अपनी आत्माकी आत्मता
को जाने और वस्तु के स्वभाव को जाने । जो निश्चय धर्म मेरी आत्मा है, सो शुद्ध चैतन्यरूम, अ.
संख्यातप्रदेशी, अमूर्न, स्वदेहमात्रव्यापी, सर्व पुद्गलों से भिन्न, अखंड, अलिस, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, चीर्य, अव्यानाध, सच्चिदानंदादि अनंत गुणमयी, अविनाशी, अनुपाघि, अविकारी है, सोई उपादेय है। इस से विलक्षण जो परपुद्गलादिक, सो मेरे नही । तिस पुद्गल के पांच विकार है--१. शब्द, २. रूप, ३. रस, ४. गंध, ५. स्पर्श, इन पांचों के उत्तर भेद अनेक हैं । इस लोकाकाश में उद्योत तथा अंधकार, तथा जो शब्द है, तथा सर्व रूपी वस्तु की जो छाया, रल की कांति, शीत, धूप, नाना प्रकार के रूप, रंग, संस्थान, और नाना प्रकार की सुगंध, दुर्गन्ध, नानाप्रकार के रस, तथा सर्व संसारी जीवों की देह, भाषा, और मन के विकल्प, दस प्राण, छ पर्याप्ति, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और खुशी, उदासी, कदाइ, हठ, लड़ाई, क्रोधादि चार कषाय, तथा साता असाता, ऊंच, नीच, निद्रा, विकथा, तथा सर्व पुण्यप्रकृति, सर्व पापप्रकृति, तथा रीझना, मौज, खिजना, खेद तथा छे लेश्या, लामालाभ, यश, अपयश, मूर्ख, चतुरता, स्त्री, पुरुष, नपुंसकवेद, कामचेष्टा, गति, जाति, कुल, इत्यादि आठ कर्म का विपाक-फल है। यह सर्व बातें जीव के अनुभव