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________________ सप्तम परिच्छेद १५ से सिद्ध हैं । अरु सूक्ष्मपुद्गल इंद्रिय अगोचर है, सो परमाणु आदि लेके अनेक तरे का है। इस पूर्वोक्त पुद्गल के संयोग से जीव चारों गति में भटकता है । यह पुद्गल मेरी जाति नही, इस पुद्गल का मेरे साथ कोई वास्तव संबंध नही, और यह पुद्गल सर्व त्यागने योग्य है, जो इस पुद्गल का संसर्ग है, सोई संसार है, तथा इस पुद्गल की संगति से ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुण बिगड़ जाते हैं, जो यह पुद्गल द्रव्य की रचना है, सो मेरी आत्मा का स्वभाव नहीं । तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, यह चारों द्रव्य ज्ञेयरूप हैं, इन से भी मेरा स्वरूप अन्य है और जो संसारी जीव हैं, सो सर्व अपनी अपनी स्वभाव सत्ता के स्वामी हैं, सो मेरे ज्ञान में ज्ञेय रूप हैं, परन्तु मै इन सर्व से अन्य हूँ, ये मेरे नहीं हैं, मैं इनका नहीं, में इनका साथी भी नहीं, और मैं अपने स्वरूप का स्वामी हूँ, मेरा स्वभाव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप है, वर्ण रहित, तथा गंध रहित, रस रहित, चैतन्य गुण, अनंत, अव्याबाध, अनंत दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यादिक अनंत गुण स्वरूप है तिनकी श्रद्धा भासन पूर्वक गुणस्वभावादिक रूप चिदानंद घन मेरा स्वभाव है । ऐसा जो मेरा पूर्णानंद स्वभाव, तिस के प्रगट करने वास्ते सर्वशुद्ध व्यवहारनय निमित्तमात्र है । परन्तु मुख्य तो मेरा स्वभाव जो है, तिस ही में जो रमणता 1
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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