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________________ सप्तम परिच्छेद २. भावदया-दूसरे जीवों की गुणप्राप्ति के वास्ते तथा दुर्गति में पड़ते हुए जीव के रक्षण वास्ते, अन्तःकरण में अनुकंपा बुद्धि संयुक्त जो परजीव को हितोपदेश करना, सो भावदया है। ३. स्वदया-अनादि काल से मिथ्यात्व, अशुद्ध उपयोग, अशुद्ध श्रद्धापूर्वक अशुद्ध प्रवृत्ति, कषायादि मावशस्त्रों करी समय समय में आत्मा के ज्ञानादि गुणरूप भावप्राणों की हिंसा होती है। ऐसे जिनवचन सुनने से पूर्वोक भावशस्त्रों का त्याग करके स्वसत्ता में प्रवृत्ति करके, शुद्धोपयोग धार के विषय कषायों से दूर रहना, अरु शुभ, अशुभ कर्मफल के उदय में अव्यापक रहना, अर्थात् सुख दुःख में हर्ष विपाद न करना, प्रतिक्षण अशुभ कर्म के निदान को दूर करने की जो चिंता, तिस का नाम स्वदया है। इस स्वदया की रुचि वाला जीव अपनी परिणति शुद्ध करने वास्ते जिन पूजा, तीर्थयात्रा, रथयात्रा प्रमुख शुम प्रवृत्ति करे बहुमान करके जिन गुण गावे, असत् प्रवृत्ति से चित्त को हटा करके तत्त्वालंबी करे, पुद्गलावलंबीपना हटावे। इस शुभाश्रव में यद्यपि देखने में कितनेक जीवों की हिंसा दीख पड़ती है, तो भी आत्मा की अशुद्ध परिणति मिटने से आत्मा को गुणग्राही हो जाती है, जब गुणग्राही भई, तब ज्ञानवान् हो गई। इस वास्ते सर्व साधक जीवों को यह स्वदया परम साधन है। इस स्वदया के वास्ते साधु मी नवकल्पी
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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