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जैनतरवादर्श को पात्र बुद्धि करके शुद्ध अन्नादिक देवे | यह शुद्ध व्यवहार गुरुतत्त्व है। तथा शुद्ध निश्चय गुरुतत्व तो शुद्धात्मविज्ञानपूर्वक है जो हेयोपादेय में उपयोगयुक्त परिहार प्रवृत्तिज्ञान, सो निश्चयगुरुतत्व है। अथ तीसरा धर्मतत्त्व कहते हैं। धर्मतत्त्व के भी दो भेद
हैं, एक व्यवहार धर्मतत्त्व, दूसरा निश्चयधर्मव्यवहार धर्म तत्त्व । तिन में जो व्यवहाररूप धर्म है, सो और दया दयाप्रधान है। क्योंकि जो सत्यादि व्रत हैं,
सो सर्व दया की रक्षा वास्ते हैं। इस वास्ते दया का स्वरूप लिखते हैं। दया के आठ भेद हैं, सो कहते हैं-१. द्रव्यदया, २. भावदया, ३. स्वदया, ४. परदया, ५. स्वरूपदया, ६. अनुबंधदया, ७. व्यवहारदया, ८. निश्चयदया।
१. द्रव्यदया-यत्नपूर्वक सर्व काम करना । यह तो जैन-मत वाले के कुल का धर्म है। सब जैन लोग पानी छान के पीते हैं, और अन्न शोध के खाते है । जेकर कोई जैनी छलकपट करता है, झूठ बोलता है और विश्वासघात करता है, वो पापी जीव है। सो जैन-मत को कलंकित करता है, वो सर्व उस जीव का ही दोष है, परंतु उस में जैनधर्म का कुछ दोष नहीं है। जैनधर्म तो ऐसा पवित्र है कि जिस में कोई भी अनुचित उपदेश नहीं है । यह बात सर्व सुज्ञ जनों को विदित है। इस वास्ते जो काम करना, सो यलपूर्वक जीवरक्षा करके करना।