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सप्तम परिच्छेद निक्षेप करके संयुक्त, ऐसा जो अरिहंत देवाधिदेव, महा गोप, महा माहण, महा निर्यामक, महा सार्थवाह, महा वैद्य, महा परोपकारी, करुणासमुद्र, इत्यादि अनेक उपमा लायक, सो भव्य जीवों के अज्ञानांधकार को दूर करने में सूर्य के समान है, प्रमाण करके अविरोधि जिस के वचन हैं । और ऐसे मुनिमनमोहन, योगीश्वर, चिदानंद घनस्वरूप, अरिहंत को मैं देव अर्यात् परमेश्वर मानता हूं, तिस की सेवा करूं, तिस की आज्ञा सिर धरूं, ऐसा जो माने, सो प्रथम व्यवहारशुद्ध देवतत्त्व है।
दूसरा निश्चय शुद्ध देवतत्व कहते हैं। जो शुद्धात्म स्वरूप को अनुभव करना, सो शुद्धात्म स्वरूप ही निश्चय देवतत्त्व है। कैसा है वो आत्मस्वरूप ! कि पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श. शब्द, क्रिया इन से रहित तथा योग से रहित, अतींद्रिय, अविनाशी, अनुपाधि, अबंधी, अक्लेगी, अमूर्त, शुद्ध चैतन्य, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनन्त गुणों का भाजन, सच्चिदानन्द स्वरूपी ऐसी मेरी आत्मा है, सोई निश्चय देव है। ___ अथ दूसरा गुरुतत्त्व कहते हैं । तिस के भी दो मेद हैं, एक शुद्ध व्यवहारगुरु, दूसरा शुद्ध निश्चयगुरु । उस में शुद्ध व्यवहारगुरु का स्वरूप तो गुरुतत्त्व निरूपण परिच्छेद में लिख आये हैं, तहां से जान लेना। ऐसे साधु को गुरु करके माने, ऐसे गुरु की आज्ञा से प्रवर्ते, ऐसे मुनि