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जैनतत्वादर्श वे भी थोड़ी बुद्धि वाले हैं। क्योंकि जिस के देह नहीं, वो शास्त्र का उपदेष्टा कदापि नहीं कर सकता है। कारण कि देह रहित होना अरु शास्त्र का उपदेश देने वाला भी होना, इस बात में कोई भी प्रमाण नहीं है । अरु मूर्ति स्थापना के बिना निराकार सर्वव्यापी परमेश्वर का ध्यान भी कोई नहीं कर सकता है, जैसे कि आकाश का ध्यान नहीं हो सकता है। इस वास्ते अठारह दूषण से रहित जो परमेश्वर है, तिस की मूर्ति अवश्य माननी और पूजनी चाहिये । सो ऐसा देव तो अहंत ही है, इस वास्ते अहंत की प्रतिमा अवश्य माननी चाहिये । परन्तु किसी दुर्बुद्धि के कुहेतुओं से भ्रम में फंस कर छोड़नी कदापि न चाहिये।
तीसरा द्रव्यनिक्षेपः-सो जिस जीव ने तीर्थकर नाम कर्म का निकाचित बंध कीना है, तिस जीव में भावी गुणों का आरोप अर्थात् आगे को तीर्थंकर भगवान् होवेगा, ऐसा वर्तमान में आरोप करके वंदन नमस्कार और पूजन करना द्रव्यनिक्षेप है। इस से अनेक जीव मोक्ष को प्राप्त
चौथा भावनिक्षेपः-सो जो वर्तमान काल में सीमंघर प्रमुख तीर्थकर केवल ज्ञानसंयुक्त, समवसरण में विराजमान, भव्यजीवों के प्रतिबोधक, चतुर्विध संघ के स्थापक, सो भाव अर्हत, इन के चरणकमल की सेवा करके अनेक जीव मुक्त होते हैं । यह भावनिक्षेप है। यह चार