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सप्तम परिच्छेद
पद के मानते हैं । यह सब मिल कर एक सौ आठ होते हैं। इस वास्ते जैनियों के मत में माला में जो मणके हैं, सो एक एक मणका एक एक गुण की स्थापना है । यह माला भी स्थापना है । इसी तरे दूसरे मतों में भी जो माला तसवी है, सो सर्व किसी न किसी वस्तु की स्थापना है । नहीं तो एक सौ आठ तथा एक सौ एक का नियम न होना चाहिये । तथा पादरी लोगों की पुस्तकों पर भी ईसामसीह की मूर्चि उस वखत की छापी हुई है, जिस अवसर में मसीह को शूली पर देने को ले जाते थे । उस मूर्ति के देखने से ईसा - मसीह की सर्व अवस्था मालूम हो जाती है। बस, स्थापना का यही तो प्रयोजन है, कि जो उसके देखने से असली वस्तु का स्वरूप याद - स्मरण हो जाता है। आश्चर्य तो यह है, कि अब इस काल में कितनेक तुच्छ बुद्धि वाले अपनी बनाई पुस्तक में यज्ञशाला तथा यज्ञोपकरण की स्थापना अपने हाथों से करके अपने शिष्यों को जनाते हैं, कि यज्ञोपकरण इस आकृति के चाहिये । फिर कहते हैं कि हम स्थापना को नहीं मानते है । अत्र विचार करना चाहिये कि क्या इन से मी कोई अधिक मूर्ख जगत् में है ! आप तो स्थापना करते हैं, अरु फिर कहते है कि हम स्थापना को मानते नहीं हैं । इस वास्ते जो पुरुष अपने शास्त्र के उपदेशक को देहधारी मानेगा, वो अवश्य उसकी मूर्ति को भी मानेगा । तथा जो अपने शास्त्र के उपदेष्टा को देहरहित मानते हैं,