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जैनतत्वादर्श प्रथम सचित आहार अतिचार-मूल मांगे में तो श्रावक सर्व सचित्त का त्याग करे। जेकर नहीं करे, तो परिमाण कर लेवे । तहां सर्व सचित्त के त्यागी तथा सचित्त के परिमाणवाले जो अनाभोगादिक से सचित्त आहार करे। तथा जल तीन उकाली आ जाने से शुद्ध प्राशुक होता है, तिन में एक उकाला, दो उकाला का पानी तो मिश्र उदक कहा नाता है, तिस पानी को अचित्त जान के पीवे । तथा सचित्त वस्तु अचित्त होने में देर है, उस वस्तु को अचित्त जान कर खावे । तो प्रथम अतिचार लगे ।
दूसरा सचित्त प्रतिवद्धाहार अतिचार-जिस के सचित्त वस्तु का नियम है, सो तत्काल खैर की गांठ से गूंद उखेड़ के खावे । गूंद तो अचित्त है, परन्तु सचित्त के साथ मिला हुआ था, सो दूषण लगता है । तथा पके हुए अंब, खिरनी,
र प्रमुख को मुख से खावे, अरु मन में जानता है कि, मैं तो अचित्त खाता हुं, सचित्त गुठली को तो गेर दूंगा, इस में क्या दोष है ! ऐसा विचार करके खावे तब दूसरा अतिचार लगे।
तीसरा अपक्वौषधिमक्षण अतिचार-विना छाना आटा, अग्नि संस्कार जिस को करा नहीं, ऐसा कच्चा आटा खावे । क्योंकि श्री सिद्धांत में आटा पीसे पीछे विना छाने कितने ही दिन तक मिश्र रहता है, सो कहते हैं। श्रावण अरु भाद्रपद मास में अनछाना आटा पीसे पीछे पांच दिन मिश्र