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________________ 'जैनतत्वादर्श जितशत्रु और सुमित्र तो दीक्षा ले के, मोक्ष हो गये। तब श्री अजितनाथ राजा हुये अरु सगर युवराज हुये। कितनेक काल राज करके श्री अजितनाथ ने तो स्वयमेव दीक्षा लेकर तप करा, और केवलज्ञान पा कर दूसरा तीर्थकर हुआ। पीछे सगर राजा हुआ। सो सगर दूसरा चक्रवर्ती हुआ है। इस सगर राजा ने भरत की तरें षट् खंड का राज्य करा। इस सगर राजा के जहनुकुमार प्रमुख साठ हज़ार बेटे हुये / तिनों ने दण्ड रत्न से गंगा नदी को अपने असली प्रवाह से फेर के और कैलास के गिरदनवाह खाई खोद के उस खाई में गंगा को ला के गेरा। क्योंकि उन्होंने विचार करा था कि, हमारे बडे भरत ने जो इस पर्वत ऊपर सुवर्णरलमय श्रीऋषभादि तीर्थंकरों का मन्दिर बनाया है, तिस की रक्षा वास्ते इस पर्वत के चारों ओर खाई खोद कर उसमें गंगा फेर देवें, जिस से तीर्थ की विशेष रक्षा हो जायेगी। तिन साठ हज़ार को नाग देवता ने मार दिया, क्योंकि खाई खोदने और जल भरने से उनको तकलीफ पहुंची थी। तब गंगा के जल ने देश में बढ़ा उपद्रव करा / तब सगर राजा के पोते जहनु के बेटे भगीरथ ने सगर की आज्ञा से दण्डरत्न से भूमि खोद के गंगा को समुद्र में मिलाया। इसी वास्ते गंगा का नाम जाह्नवी और भागीरथी कहा जाता है। . . . . / /
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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