________________
१२८
जैनतत्वादर्श
अनर्थदण्ड करे । सो धन, धान्य, क्षेत्रादि नवविध परिग्रह विरमण व्रत में हानि वृद्धि होवे; तब करे। क्योंकि धन- वृद्धि के निमित्त संसारी जीव को बहुत पाप के कारण सेवने पड़ते हैं, सत्य झूठ बोले विना रहा नहीं जाता है, पाप के उपकरण भी मेलने पड़ते हैं। जब कोई मनसूबा करना पड़ता है, तब अनेक विकल्प रूप-आध्यान करना पड़ता है। क्योंकि धनादि का परिग्रह आजीविका के वास्ते हैं । अतः धन की वृद्धि के वास्ते जो जो पाप करता है, सो २ सर्व अर्थदण्ड है । २. जब धन की हानि होती है, तब धनहानि के दूर करने वास्ते अनेक विकल्परूप पाप करता है। सो भी अर्थदण्ड है। क्योंकि संसार के सुख का कारणरूप धन व्यवहार है । तिस व्यवहार के वास्ते जो पाप करना पडे, सो अर्थदण्ड है । ३. अपने स्वजन, कुटुंब परिवारादिक के वास्ते अवश्य जो जो पाप सेवना पड़े, सो सो सब अर्थदण्ड है । ४. पांच प्रकार की इन्द्रियों के भोग के वास्ते जो पाप करे, सो भी अर्थदण्ड है। इन पूर्वोक्त चारों प्रयोजनों के बिना जो पाप करे, सो अनर्थदण्ड जानना । तिस के चार भेद हैं, सो कहते हैं-प्रथम अपध्यान अनर्थदण्ड, दूसरा • पापोपदेश अनर्थदण्ड, · तीसरा हिंसप्रदान अनर्थदण्ड, चौथा प्रमादाचरित अनर्थदण्ड है । इन में से प्रथम जो अपध्यान अनर्थदण्ड है, उसके फिर दो भेद है-एक आर्तध्यान, दूसरा रौद्रध्यान । तिन में फिर आध्यान के चार भेद हैं।