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अष्टम परिच्छेद
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सो पृथक् पृथक् कहते हैं ।
१. अनिष्टार्थसंयोगार्त्तध्यान -- इन्द्रिय सुख के विघ्नकारी - ऐसे अनिष्ट शब्दादि के संयोग होने की चिंता करे कि, मेरे को अनिष्ट शब्द न मिले । २. चार भेद इष्टवियोगार्त्तध्यान - हम को नवविध परि
आर्तध्यान के
ग्रह अरु परिवार जो मिला है, इस का वियोग मत होवे; ऐसी चिंता करे । अथवा इष्ट जो माता, पिता, स्त्री, पुत्र, मित्र प्रमुख हैं, इनके विदेशगमन से तथा मरण होने से बहुत चिंता करे, खावे पीवे नहीं, वियोग के दुःख से आत्मघात करने का विचार करे, अथवा सर्व दिन क्रोध ही में रहे । तथा घर में यह कुपूत है, यह भाई वेदिल है, मेरे पिता का मेरे ऊपर मोह नहीं है, यह स्त्री मुझ को बहुत खराब मिली है, मेरे ऊपर दिल नहीं देती है, इस का कोई उपाय होवे तो अच्छा है । अरु स्त्री मन में विचारे कि, मुझे सौकन खराब करती है, मेरे पति को भुलाती है, क्या जाने किसी दिन पति से मुझे दूर कर देगी ! इस वास्ते इस रांड का कुछ उपाय करना चाहिये । तथा सेवक ऐसा विचार करे कि, मेरे स्वामी के आगे फलाना मेरा दुश्मन गया है, सो ज़रूर मेरी खोटी कहेगा, मेरी रीतभांत को अदलबदल कर देवेगा, मेरे स्वामी को झूठ सच कह कर मेरी नौकरी छुड़ा देवेगा, तब मैं क्या करूंगा ! इस का कुछ उपाय करना चाहिये । तिस के निग्रह के वास्ते यन्त्र, मन्त्र,