________________ एकादश परिच्छेद लड़ेंगे / ऐसा विचार करके कैलास पर्वत के ऊपर श्रीऋषभदेवजी के पास गये। तब श्रीऋषमदेवजीने उनके मन का अभिप्राय जान कर उनको उपदेश करा। जो उपदेश करा था, सो श्रीसूत्रकृतांग सूत्र के दूसरे वैतालीय अध्ययन में लिखा है। तब तो उपदेश सुन कर अठानवे पुत्रोने दीक्षा ले लीनी, सर्व झगड़े छोड़ दिये। इस वार्ता में भरत की अपकीर्ति हुई / तब भरत चक्रवर्ती पांच सौ गाड़े पकान के लेकर समवसरण में आया और कहने लगा कि, मैं अपने भाइयों को भोजन कराऊंगा और अपना अपराध क्षमा कराऊंगा / तब श्रीऋषभदेवजीने कहा कि ऐसा आहार साधुओं को लेना योग्य नहीं / तब भरत मन में बड़ा उदास हुआ। भरतने कहा कि, अब मैं यह आहार किसको दूं! तब शक्र-इन्द्रने कहा कि, जो तेरे से गुणों में अधिक हो, तिनको यह भोजन दो। तब भरतने मन में विचार करा कि मेरे से गुणाधिक तो श्रावक है / तब भरतने बहुत गुणवान् श्रावकों को वो भोजन जिमाया और उन श्रावकों को भरतजीने कह दिया कि तुम सर्व मिल कर प्रतिदिन अर्थात् रोज की रोज मेरा ही भोजन करा करो। खेती, वाणिज्यादि कुछ काम मत करा करो, केवल स्वाध्याय करने में तत्पर रहो, भोजन करके मेरे महलों के दरवाजे आगे बैठ के तुमने ऐसे कहना कि " जितो भवान् वर्धते भयं तस्मान्माहन माहनेति" | तब वे