________________ 386 जैनतस्वादर्श श्रावक ऐसे ही करते भये / अरु भरत राजा तो भोगविलासों में मग्न रहता था, परन्तु जब तिनका शब्द सुनता था, तब मन में विचारता था कि, किसने मुझे जीता है ! तब विचार करा कि क्रोध, मान, माया अरु लोभ, इन चार कषायों ने मुझे जीता है, तिनों से ही भय की वृद्धि होती है / ऐसा विचार करने से भरत को बड़ा भारी वैराग्य उत्पन्न होता था। इस अवसर में रसोई जीमनेवाले श्रावक बहुत हो गये। जब रसोईदार रसोई करने में समर्थ न रहा, तब भरत महाराज को निवेदन करा कि, मैं नहीं जान सकता कि इन में श्रावक कौन है, और कौन नहीं है ! तब भरत. ने कहा कि तुम पूछ के उनको भोजन दिया करो / तब रसोई करनेवाले उनको पूछने लगे कि तुम कौन हो ! वे कहने लगे, हम श्रावक हैं। फिर तिनों को पूछा कि श्रावकों के कितने व्रत हैं ! तब तिनोंने कहा हमारे पांच अणुव्रत हैं, अरु सात शिक्षावत हैं। इस तरे से जब जाना कि यह श्रावक ठीक हैं, तब उनको भरत महाराज के पास लाये / भरतने उनके शरीर में काकणी रत्न से तीन तीन रेखा का चिन्ह कर दिया, अरु छठे महीने अनुयोग परीक्षा करते रहे / वे सर्व श्रावक ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध हुये। क्योंकि जब भरत महाराज के दरवाजे आगे वे 'माहन' 'माहन' शब्द वार वार,उच्चारण करते थे, तव लोक उनको 'माहन'