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________________ एकादश परिच्छेद कहने लग गये / जैनमत के शास्त्रों में प्राकृत भाषा में अब भी ब्राह्मणों को 'माहन' करके लिखा है / अरु जो संस्कृत ब्राह्मण शब्द है, वो प्राकृत व्याकरण में बंभण और माहण के स्वरूप से सिद्ध होता है। श्री अनुयोगद्वार सूत्र में ब्राह्मणों का नाम "वुडसावया" अर्थात् बड़े श्रावक ऐसा लिखा है / यह सर्व ब्राह्मणों की उत्पत्ति है, अरु सो ब्राह्मण अपने बेटों को साधुओं को देते थे। जिनोंने प्रव्रज्या न लीनी वे श्रावक व्रतधारी हुए / यह रीति तो भरत के राज्य में रही। पीछे भरत का वेटा आदित्ययश हुआ, अर्थात् सूर्ययश जिस के संतानवाले भरत क्षेत्र में सूर्यवंशी कहे जाते है / अरु बाहुबली का बड़ा पुत्र चन्द्रयश था, तिसके संतानवाले चन्द्रवंशी कहे जाते हैं। श्री ऋषभदेवजी के कुरु नामा पुत्र के संतान सव कुरुवंशी कहे जाते हैं, जिन में कौरव, पांडव हुये है। ____ जब भरत का बड़ा पुत्र सूर्ययश सिंहासन पर बैठा, तब तिसके पास काकणी रल नहीं था, क्योंकि काकणी रल चक्रवर्ती के सिवाय और किसी के पास नहीं होता है। इस वास्ते सूर्ययश राजाने ब्राह्मण श्रावकों के गले में सुवर्णमय यज्ञोपवीत [ जनेऊ इतिभाषा ] करवा दिये, तथा भोजन प्रमुख सर्व मरत महाराज की तरें देता रहा। जब सूर्ययश का वेटा महायश गद्दी पर बैठा, तब तिस ने रूपे के यज्ञोपवीत बनवा दिये / आगे तिनों की संतानोंने पंचरंगे रेशमी-पट्टसूत्र.
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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