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जैनतत्त्वादर्श रक्खे । इस तरे देवद्रव्य की चिंता सारसम्भाल करे ।
देहरा प्रमुख की चिंता अनेक तरे की है, तिन में धनान्य को धन से, तथा स्वजन के बल से चिंता सुकर है। अरु धन रहित को अपने शरीर तथा स्वजन के बल से साध्य है। जिसका जहां जैसा बल होवे, वो विशेष तैसा यल करे। जो चिंता थोड़े काल में हो सके तिस को दूसरी निस्सही से पहिले करे, शेष को यथायोग्य पीछे करे । ऐसे ही धर्मशाला, गुरुज्ञानादि की भी यथोचित सर्व शक्ति से चिंता करे । क्योंकि देव, गुरु आदि की सारसम्भाल श्रावक के बिना और कोई करनेवाला नहीं। इस वास्ते श्रावक को देवादि की भक्ति और सारसंभाल में शिथिल न होना चाहिये । जेकर देव, गुरु प्रमुख की भक्ति, सेवा, सारसंभाल श्रावक न करे, तो उसका सम्यक्त्व कलंकित हो जाता है । अरु जो श्रावक देव, गुरु का भक्त है, उससे कदाचित् कोई आशातना भी हो जावे, तो भी अत्यन्त दुःखदायी नहीं। इस वास्ते चैत्यादि कृत्य में नित्य प्रवृत्त होवे । कहते भी हैं
देहे द्रव्ये कुटुंबे च, सर्वसंसारिणां रतिः । जिने जिनमते संघ, पुनर्मोक्षाभिलाषिणम् ।। * भावार्थ:-द्रव्य, शरीर और कुटुम्ब में तो सर्व ससारी लोगो की प्रीति है, परन्तु जिनधर्म और संघ में प्रीति तो केवल मोक्षामिलाषी पुरुषो की होती है।