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________________ नवम परिच्छेद ૨૨૩ देव, गुरु प्रमुख की आशातना जो है, सो जघन्यादि भेद ___ करके तीन प्रकार की है, तहां प्रथम ज्ञान ज्ञान को भायातना की आशातना कहते हैं। पुस्तक, पट्टी, टीपणी, जपमालादिक को मुख का थूक लेशमात्र लग जावे; हीनाधिक अक्षर उच्चारे, ज्ञानोपकरण-पाटी, पोथी, नवकारावली प्रमुख पास हुए, अधोवात निःसर्गादि होवे, सो जघन्य आयातना है। तथा अकाल में पठनादि, उपधान के विना मूत्र पढ़ना, भ्रांति करके अर्थ की अन्यथा कल्पना करना, पुस्तकादि को प्रमाद से पगादिक का स्पर्श करना, भूमि में गेरना, ज्ञानोपकरण के पास हुए आहार तथा मूत्रादि करना, सो मध्यम आशातना हैं। तथा थूक करके अक्षर मांजे, पाटी, पोथी प्रमुख ज्ञानोपकरण के ऊपर बैठना आदि करे, ज्ञानोपकरण के पास हुए उच्चारादिक करे, तथा ज्ञान की, ज्ञानी की, निंदा, प्रत्यनीकपना उपधात करे, उत्सूत्रभाषणादि करे, सो उत्कृष्ट आगातना है । अत्र देव की आगातना कहते हैं। तहां जघन्य देवाशातना सो वास, वरास, केसर प्रमुख के डब्वे को जिनमन्दिर की वनावे; श्वास तथा वस के छेड़े से देव का ८४ आगातना स्पर्श करे, सो जघन्य आशातना है। तथा पवित्र वल, धोती प्रमुख करे विना पूजा करे, पूजा के बल भूमि में गेरे, इत्यादि मध्यम आशातना है तथा प्रतिमा को पग से संघटना, श्लेष्म अरु थूक का
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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