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________________ ११६ जैन तत्वादर्श को कभी सचित वस्तु खाने में न आ जावे । ४. जलादिक द्रव्य अचेतन करने में जो जीवहिंसा हुई है, सो तो कर्मबन्धन का कारण बन चूकी; परंतु जो क्षण क्षण में असंख्यअनंत जीवों की उत्पत्ति होती थी, सो तो मिट गई, तिन की हिंसा न होवेगी । अरु जो कोई मूढमति अपनी मन:कल्पना से ऐसा विचार करे कि, अचित्त करने में षट्काय के जीवों की हिंसा होती है, अरु सचिच जलादिक पीने में तो एक जलादिक की हिंसा है; इस वास्ते सचित का त्याग न करना चाहिये; और ऐसा विचार कर सचिच त्यागे नहीं सो मूर्ख जिनमत के रहस्य को नही जानता । क्योंकि सचित्त के त्यागने से आत्मदमनता, औत्सुक्य निवारणता, विषयकषाय की मंदता होती है । अरु इसमें स्वदयागुण बहुत है, यह भी वो नहीं जानते । इस वास्ते सचित त्यागने में बहुत लाभ है । - -- २० द्रव्य नियम -- सो धातु वा शिला, काष्ठ, मट्टी का पात्र प्रमुख तथा अपनी अंगुली प्रमुख बिना, मुख से , खाने में जो आवे सो द्रव्य कहते हैं-" परिणामांतरापन्नं - द्रव्यमुच्यते " - तिन में खिचड़ी, तो बहुत द्रव्यों से बनते हैं, तो ही द्रव्य है । तथा एक ही गेहूं की बाटी प्रमुख है, तो भी यह नामांतर, स्वादांतर, रूपांतर सर्व -- मोदक, पापड़, बड़ा प्रमुख भी परिणामांतर से एक बनी रोटी, पोली, गूगरी, भिन्न द्रव्य हैं; क्योंकि परिणामांतर से द्रव्यांतर हो •
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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