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________________ अष्टम परिच्छेद मैं आ जावे, तो तिस की भी जयणा रक्खे । .. अथ चौदह नियम का विवरण लिखते हैं: - सचित्त दव विगह, वरणह तंबोल वत्थ कुसुमेसु । वाहण सयण विलेवण, वंभ दिसि न्हाणभचेसु | ११५ श्रावक के जावजीव पांच अणुव्रत में इच्छा परिमाण अर्थात् आगे की अनेक तरे की कर्म परिचौदह नियम गति का संभव जान कर अपने निर्वाह और सामर्थ्य के अति दुस्तर उदय का विचार करके, इच्छा परिमाण में बहुत वस्तु खुल्ली रक्खी हैं, तिन में से फिर नित्य के आश्रव का निवारण करने के वास्ते संक्षेप करणार्थ चौदह नियम का धारण प्रतिदिन करना चाहिये । तिस का स्वरूप कहते हैं: - १. सचित परिमाण -- सो मुख्य वृत्ति से तो श्रावक को सचित का त्याग करना चाहिये, क्योंकि अचित वस्तु के खाने में चार गुण हैं - १. अप्राशुक जलादिक का पीना वर्जने से, सर्व सचित वस्तु का त्याग हो जाता है। जहां तक अचित वस्तु न होवे, तहां तक मुख में प्रक्षेप न करे । २. जिह्वा इन्द्रिय जीती जाती है । क्योंकि कितनीक वस्तु बिना रांधे स्वादवाली होती हैं, तिन का त्याग हुआ । ३. अचित जलादि पीने से कामचेष्टा मंद हो जाती है; अरु चित में ऐसा खटका हरहमेश रहता है कि, मेरे ."
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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