________________ परिशिष्ट (2) स्वामीजीने नं० 2 के मन्त्र का सिर्फ चतुर्थ चरण ही लिख कर उसका मनमाना अर्थ करके वेदों को लांछित करने का दुःसाहस किया है / इस लिये सम्पूर्ण मन्त्र और उसका वैदिक इतिहासार्थनिर्णय में किया हुआ अर्थ नीचे दिया जाता है। तथाहि आघाता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र यामयः कृण्वनयामि / उपवहि घृषभाय वाहु मन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत् // 10 // यम कहता है [ता+ उत्तरा+युगानि+आ+गच्छान् + घ] वे उत्तर युग आगे [यत्र यामयः अयामि कृण्वन् ] जव बहनें भ्राता को अयामि अर्थात् पति बनावेंगी [सुभगे मत् अन्यं पति इच्छस्व ] इस कारण ए यामि ! तूं मुझ को त्याग, अन्य पति की इच्छा कर तब [वृषभाय बाहु उपवईहि ] उस स्वामी के लिये निज बाहु का उपबर्हण अर्थात् तकिया बना // 10 // [पृ०४०७ ] नोट-वैदिक इतिहासार्थनिर्णय आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाव की आज्ञानु सार ईस्वी सन् 1909 में गुरुकुल कांगडी से प्रकाशित हुआ है। इस के रचयित्ता आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पंडित शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ है।