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________________ जैनवत्वादर्श , २-जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपनी बी को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा करनेहारी स्त्री तू (मत् ) मुझ से (अन्यम्) दूसरे पति की (ईच्छस्व ) इच्छा कर / क्योंकि अब मुझ से सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी। - इन दोनों मंत्रों का स्वामीजीने जो अर्थ किया है, तथा उसी अर्थ के आधार पर ऊपर दी हुई जो स्वतंत्र व्याख्या की है, उससे संसार भर का शायद ही कोई तटस्थ विद्वान् सहमत हो सके / अस्तु, अब हम स्वयं इन मन्त्रों के वास्त. विक-यथार्थ अर्थ के विषय में कुछ भी न कहते हुए आर्य समाज के ही एक प्रतिष्ठित विद्वान् के द्वारा किये गये उक्त दोनों मन्त्रों का अर्थ यहां पर उद्धत कर देते हैं, जिस से कि पाठकों को सत्यासत्य के निर्णय करने में अधिक सुविधा हो। . (1) [ इन्द्रमिढ्वः ] हे परमैश्वर्य सम्पन्न परमैश्वर्यदाता परमात्मन् ! हे अनन्त सम्पत्तियों को प्रनाओ में सींचनेवाले परमपिता जगदीश ! [त्वं इमां सुपुत्रां सुभगां कृणु] -तू इस वधू को सुपुत्रवती और सौभाग्यवती बना [ अस्यादुश' पुत्रान् आधेहि ] इसके गर्भ में दश पुत्र स्थापित कर, [पतिमेकादशं कृषि ] पति को ग्यारवें कर अर्थात् इस श्री के.दश उत्कृष्ट सन्तान और ग्यारवां पति जैसे होय, वैसा उपाय कर। I::: ...: [वैदिक इतिहासार्थनिर्णय पृ० 412]
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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