________________ परिशिष्ट इन दो मंत्रों के अर्थ पर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। १-(इमा) ईश्वर मनुष्यों को आज्ञा देता है कि हे इन्द्र ! पते ! ऐश्वर्ययुक्त ! तू इस स्त्री को वीर्यदान दे के सुपुत्र और सौभाग्य युक्त कर / हे वीर्यप्रद ! (दशास्यां पुत्रानाचेहि ) पुरुष के प्रति वेद की आज्ञा है कि इस विवाहित या नियोजित बी मे दश सतान पर्यंत उस्पन्न कर, अधिक नहीं। (पतिमेकादशं कृषि ) तथा हे स्त्री! तू नियोग मे ग्यारह पति तक कर / अर्थात् एक तो उनमें प्रथम विवाहित और दश पर्यन्त नियोग के पति कर, अधिक नहीं। इसकी यह व्यवस्था है कि विवाहित पति के मरने वा रोगी होने से दूमरे पुरुष के साथ संतानों के अभाव में नियोग करे, तथा दूसरे के भी मरण वा रोगी होने के अनन्तर तीसरे के साथ कर ले, इसी प्रकार दशवें तक करने की आज्ञा है। [ऋ० भा० भू० पृ० 232, सं० 1985] * हे ( मिढव-इन्द्र ) वीर्य सेचने में समर्थ ऐश्वर्ययुक पुरुष, तू इस विवाहित स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर / विवाहित नो में दश पुत्र उत्सम कर और ग्यारवीं स्त्री को मान / हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष पा नियुक पुरुषों से दश सन्तान उसन कर, ग्यारवें पति को समझ / [पत्या. सं० 4, पृ० 69-70, सं० 1992]