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________________ जैनतस्वादर्श परिशिष्ट नं० २-घ [40 33] वेद के कल्पित अर्थ वर्तमान आर्यसमाज के जन्मदाता स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने वेदमंत्रों के अर्थ करने में जो खैचातानी की है, और मंत्रों के क्रम तथा पूर्वोत्तर संबन्ध की अवहेलना करते हुए उनके साथ जो अन्याय किया है, उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना बहुत कठिन है। एवं कहीं कहीं पर तो वेदमंत्रों के अर्थ का अनर्थ करते हुए आपने मनुष्यत्व का भी बड़ी निर्दयता के साथ घात किया है। उदाहरणार्थ इस समय सिर्फ दो मंत्र उद्धत किये जाते है। नियोग के सिद्धांत को वैदिक सिद्ध करने के लिये आपने ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका तथा सत्यार्थप्रकाश में कई एक वेदमन्त्रों का उल्लेख किया है, उनमें से इस समय केवल(१) इमां त्वमिन्द्रमीदवा सुपुत्रां सुमगां कृणु / दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि / [* मं० 10, सू० 85, मं० 45] (2) अन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत् / [30 मं० 10, सू० 10, मं० 10]
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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