________________
जैनतस्वादर्श
तथा सोये पीछे रात्रि में जब जाग जावे, तदा अनादि काल के अभ्यास रस से कदाचित् काम पीड़ा करे, तो स्त्री के शरीर का अशुचिपना विचारे, अरु श्रीजंबूस्वामी तथा स्थूलभद्रादि महा ऋषियों की तथा सुदर्शनादि महाश्रावकों की दुष्कृत शील पालने की दृढता विचारे । तथा कषायादि दोष के जीतने के उपाय, भवस्थिति की अत्यंत दुःस्थिता और धर्म के मनोरथ का चितवन करे । तिन में स्त्री के शरीर की अपवित्रता, जुगुप्सनीयतादि सर्व विचारे । जैसे श्रीहेमचन्द्रसूरिने योगशास्त्र में लिखा है । तथा पूज्य श्रीमुनिसुन्दरसूरिने अध्यात्मकल्पद्रुम में लिखा है, तैसे विचारे । सो लेश मात्र इहां लिखते हैं
३०८
चाम, हाड, मज्जा, आंदरां, चरबी, नसा, रुधिर, मांस, विष्ठा, मूत्र, खेल, खंकारादि अशुचि पुद्गल का पिंड स्त्री का शरीर है । इस पिंड में तू क्या रमणीक वस्तु देखता है ! जिस विष्ठे को दूर से देख कर लोक थूथूकार करते हैं, मूढ़ लोक उसी विष्ठे अरु मूत्र से पूर्ण, ऐसे स्त्री के शरीर की अभिलाषा करते हैं । विष्ठे की कोथली बहुत छिद्रोंवाली जिस के छिद्र द्वारा कृमिजाल निकलते हैं, अरु कृमिजाल से भरी है, ऐसी स्त्री है। तथा चपलता, माया, झूठ, ठगी, इनों करके संस्कारी हुई है । तातें जो पुरुष मोह से इस का संग करे, भोगविलास करे, तिसको नरक के तांई है । ऐसी स्त्री विष्ठे की कोथली जिस के
ग्यारा द्वारों