SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादश परिच्छेद 421 अठारहवें और उन्नीसवें तीर्थंकर के अन्तर में आठवां कुरुवंशी सुभूम नामा चक्रवर्ती हुआ। इस सुमूम के वक्त में ही परशुराम हुआ। इन दोनों का संबन्ध जैनमत के शास्त्रों में जेसे लिखा है, तैसे मैं भी यहां लिख देता हूं। * यह कथा योगशास्त्र में ऐसे लिखी हैं कि, वसंतपुर नामा नगर में उच्छिन्नवंश नामा अर्थात् सुभूम चक्रवर्ती जिसका कोई भी सबन्धी नहीं था, ऐसा और परशुराम अग्निक नामा एक लड़का था। सो अग्निक एकदा किमी साथवारा के साथ देशांतर को गया। मार्ग में साथ से मूल के जंगल में एक तापस के आश्रम में गया। तब कुलपति तापस ने तिसको अपना पुत्र बना के रख लिया। पीछे तहां अग्निक ने बड़ा भारी घोर तप करा और बड़ा तेजस्वी हुआ। जगत् में जमदग्नि तापस के नाम से प्रसिद्ध हुआ / इस अवसर में एक जैनमती विश्वानर नामा देव और दूसरा तापसों का भक्त ध्वनन्तरी नामा देव, यह दोनों देव परस्पर विवाद करने लगे। तिस में विश्वानर तो ऐसा कहने लगा कि, श्री अहंत का कहा धर्म प्रामाणिक है, और दूसरा कहने लगा कि तापसों का धर्म सच्चा है। तब विश्वानर ने कहा कि दोनों धर्म के गुरुओं की परीक्षा कर लो। तिस में भी अहंत धर्म के तो जघन्य गुरु की और तापस धर्म के उत्कृष्ट गुरु की परीक्षा-धैर्य देख लो। तब मिथिला नगरी का
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy