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________________ 440 जैनतत्त्वादर्श तीसरी पृथ्वी में देखा। तब भाई के स्नेह से वैक्रिय शरीर बना कर श्रीकृष्ण के पास पहुंचा और श्री कृष्ण से आलिंगन करके कहा कि, मैं बलभद्र नामा तेरे पिछले जन्म का भाई हूं, मैं काल करके पांचमे ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न हुआ हूं, और तेरे स्नेह से यहां तेरे पास मिलने को आया हूं, सो मैं तेरे सुख वास्ते क्या काम करूं ! इतना कह कर जब बलभद्जीने अपने हाथों पर कृष्णजी को लिया, तब कृष्ण का शरीर पारे की तरे हाथ से क्षर के भूमि ऊपर गिर पड़ा, और मिल कर फिर सम्पूर्ण शरीर पूर्ववत् हो गया। इसी तरें प्रथम आलिंगन करने से फिर वृत्तांत कहने से और हाथों पर उठाने से कृष्णजीने भी जान लिया कि यह मेरे पूर्व भव का अति वल्लभ बलभद्र भाई है। तब कृष्णजीने संभ्रम से उठ के नमस्कार करा तब बलभद्रजीने कहा, हे माता ! जो श्री नेमिनाथने कहा था कि यह विषय सुख महादुःखदाई है, सो प्रत्यक्ष तुम को प्राप्त हुआ और तुझ कर्मनियंत्रित को मैं स्वर्ग में भी नहीं लेजा सकता हूं, परन्तु तेरे स्नेह से तेरे पास मैं रहा चाहता हूं। तब कृष्णने कहा कि, हे भ्राता ! तेरे रहने से भी तो मैंने करे हुये कर्म का फल अवश्यमेव भोगना ही है परन्तु मुझ को इस दुःख से वो दुःख बहुत अधिक है, जो मैं द्वारिका और सकल परिवार के दग्ध हो जाने से एकला कुसंबी बन में जराकुमार के तीर से मरा, और मेरे शत्रुओं को सुख तथा मेरे मित्रों को दुःख हुआ। जगत्
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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