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अष्टम परिच्छेद षड्दर्शन में भी हो सकते हैं, परन्तु भावमृषावाद का त्यागी तो एक श्रीजिनेंद्रदेव के मत में ही मिलेगा। जो जीव, श्रद्धा-रुचि को शुद्ध घारेगा, सोई भावमृषावाद का त्यागी होवेगा। इस मृषावाद के पांच मोटे भेद हैं, सो आवक को अवश्य वर्जने चाहिये । सो कहते हैं:प्रथम कन्यालीक-अपने मिलापी की कन्या है,
उसकी सगाई होने लगी होवे, तब कन्या मृषावाद के के लेने वाले पूछे कि यह कन्या कैसी है ? तब पांच भेद वो मिलापी की प्रीति से उस कन्या में जो
दूषण होवे, सो छिपावे, गुण न होवे, तो भी अधिक गुणवाली कह देवे। जैसे कि यह कन्या निर्दोष हैं, ऐसी कुलवती, लक्षणवती साक्षात् देवांगना समान तुम को मिलनी मुशकिल है । तथा जेकर मिलापी के साथ द्वेष होवे, तदा वो कन्या जो निर्दोष और लक्षणवती होवे, तो भी कहे कि इस कन्या में अच्छे लक्षण नहीं हैं, बिडालनेत्री है, इसके साथ जो संबंध करेगा, वो पश्चाताप करेगा, ऐसे अनहोये दूषण बोल देवे । यह कन्यालीक है। प्रथम तो व्रतधारी श्रावक किसी की सगाई के झगड़े में पड़े ही नहीं, अरु जेकर अपना संबंधी मित्रादिक होवे, वो पूछे, तब यथार्थ कहे, कि भाई ! तुम अपना निश्चय कर लो, क्योंकि जन्म पर्यंत का संबंध है। ऐसे कहे, परन्तु झूठ न बोले । कन्यालीक में उपलक्षण से सर्व दो पग वाले का झूठ न बोले ।