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जैनतत्त्वादर्श व्रत पालता है। तथा नवविध परिग्रह के त्यागने से परिग्रहव्रत भी पलता है। इसी तरे एक एक द्रव्य के जानने से यह चारों व्रत पाले जाते हैं। परन्तु मृषावादविरमण व्रत तो जहां लगि षड्द्रव्य की गुणपर्याय से तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अच्छी तरे से पिछाण न होवे, सम्मति प्रमुख द्रव्यानुयोग के शास्त्र न पड़े, बहुत निपुण ज्ञानवान् न होवे, तकां तक पालना कठिन है।, क्योंकि एक पर्यायमात्र विरुद्ध भाषण करने से भी यह व्रत मा हो जाता है। इसी वास्ते साधुओं को बहुत बोलना शास्त्र में निषेध करा है। इन पूर्वोक्त चारों महाव्रतों में से एक महाव्रत जेकर भङ्ग हो जावे, तब तो चारित्र भङ्ग होवे, अरु नहीं भी भङ्ग होवे । क्योंकि जेकर एक ही कुशील सेवे, तो सर्वथा चारित्र भङ्ग होवे, और शेष व्रतों के खण्डन से देश भङ्ग होवे, सर्वथा भङ्ग नहीं होवे, यह व्यवहार माण्य में कहा है। परन्तु उस का ज्ञान दर्शन भङ्ग नहीं होवे । अरु जब मृषावादविरमण व्रत का भङ्ग होवे, तब तो ज्ञान, दर्शन अरु चारित्र, यह तीनों ही जड़मूल से जाते रहते हैं। जीव मर कर दुर्गति में जाता है, अनंत संसारी, दुर्लभबोधी हो जाता है। इस वास्ते जेकर यह व्रत पालना होवे, तो षड्द्रव्य के गुण पर्याय जानने में अति उद्यम करे। जेकर बुद्धि की मन्दता होबे, तब गीतार्थ के कहने के अनुसार श्रद्धा की प्ररू. पणा करे । क्योंकि द्रव्यमृषावाद के त्यागी जीव तो