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________________ अष्टम परिच्छेद ५५ संभव की विशेष चर्चा देखनी होवे, तो धर्मरल प्रकरण की श्रीदेवेंद्रसूरिकृत टीका है, सो देख लेनी, इहां तो मैं: केवल अतिचार ही लिखूगा। __ अथ दूसरे स्थूलमृपादविरमण व्रत का स्वरूप लिखते हैं। स्थूल नाम है मोटे का, उस मोटे झूठ मृपावादविरमण का विरमण-त्याग करना । क्योंकि झूठ व्रत बोलने से जगत् में उसकी अप्रतीति हो जाती है, अपयश होता है, धर्म की निंदा होती है। तथा अपने मतलव के वास्ते कमो वेश करने का जो त्याग, उसको मृषावादविरमणव्रत कहते हैं । तिस मृषावाद के दो भेद है, एक द्रव्यमृषावाद, दूसरा भावमृषावाद । तिन में जो जान कर तथा अजानपने से झूठ बोले, सो द्रव्यमृषावाद है। तथा सर्व परभाव वस्तु को अर्थात् पुद्गलादि जड़ वस्तु को आत्मत्व बुद्धि करके अपना कहे; तथा राग, द्वेष और कृष्णादि लेश्या से आगमविरुद्ध बोले; शास्त्र का सच्चा अर्थ कुयुक्ति से नष्ट करे; उत्सूत्र बोले, उसको भावमृषावाद कहते हैं।। यह व्रत सर्वव्रतों में मोटा है। इसके पालने में बहुत शुद्ध उपयोग और होशयारी चाहिये । क्योंकि प्रथम व्रत में तो जीव मात्र के जानने से दया पल सकती है। अरु दूसरों की वस्तु को विना दिये न लेने से अदत्तविरमण तीसरा व्रत पल जाता है। तथा स्त्री मात्र का संग त्यागने से चौथा
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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