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________________ ७० जैनतस्वादर्श लगे । अथवा स्त्री भी काम की वृद्धि करने के वास्ते अनेक उपाय करे, बहुत हाव भाव विषय लालसा करे, तब पांचमा अतिचार लगे । इन पांच अतिचारों को श्रावक जाने, परन्तु आदरे नहीं । इन पांचों अतिचारों का विशेष स्वरूप धर्मरत्न प्रकरण की टीका से जानना । पांचमा स्थूलपरिग्रहपरिमाण व्रत लिखते हैं- परिग्रह के दो भेद हैं, एक तो बाह्यपरिग्रह अधिकरण परिग्रहपरिमाण रूप, सो द्रव्यपरिग्रह नव प्रकार का है । व्रत दूसरा भावपरिग्रह, सो चौदह अभ्यंतर ग्रंथिरूप जो परभाव का ग्रहण समस्त प्रदेश सहित सकषायरूप से बंध, सो भावपरिग्रह है । अरु शास्त्र में मुख्य वृत्ति करके मूर्छा को भावपरिग्रह कहा है । तिन में से चौदह प्रकार का जो अभ्यंतर हैं । १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. जुगुप्सा, ७. क्रोध, ८. मान, ९. माया, वेद, १२. पुरुषवेद, १३. नपुंसकवेद, १४. मिथ्यात्व यह चौदह प्रकार की अभ्यंतर ग्रन्थि है। संसार में इस जीव को केवल अविरति के बल से इच्छा आकाश के समान अनंती है, जो कि कदापि भरने में नहीं आती। अविरति के उदय से इच्छा अरु इच्छा से कर्मबंधन में पड़ा हुआ यह जीव चार गति में भ्रमण करता है । सो किसी पुण्य के उदय से मनुष्य भव आदि सकल सामग्री का योग पाकर, परिग्रह है, सो लिखते भय, ५. शोक, ६. १०. लोभ, ११. स्त्री
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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