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अष्टम परिच्छेद
६९ श्रम, मूर्च्छा, कम और स्वेदादि रोग उत्पन्न होते हैं। इस वास्ते श्रावक को अत्यंत विषय मन नहीं होना चाहिये । केवल जिस से वेदविकार शांत हो जावे, तितना ही मैथुन करना चाहिये । अरु जब काम उत्पन्न होवे, तब स्त्री सम्बंधी काम सेवन की जगे को जाजरू - टट्टी समान मल मूत्र से भरी हुई विचारे । मलिन वस्तु है, मुख में दुर्गध भरी है, नाक में सिघाण की दुर्गध है, कानों में मैल है, पेट में विष्ठा, मूत्र भरा है, नसों में खाये पीये का रस, रुधिर, हाड़, नाम, चर्बी, वात, पित्त, कफ, भरा है, यह महाअशुचि का पुतला है; जिस अंग में वास लेवेगा, वहां महा दुर्गंध उछलती है; अनित्य -- अशाश्वत है, सड़न, पतन, विध्वंसन हो जाना इस का स्वभाव है । तो फिर हे मूढ जीव ! स्त्री को देखकर क्यों कामाकुल होता है ? ऐसे विचार से काम को शांत करे । चौथा पर विवाहकरण अतिचार - अपने पुत्र पुत्री के बिना, यत्र के वास्ते, पुण्य के वास्ते, और लोकों के विवाह करावे, सो चौथा अतिचार |
पांचमा तीव्रानुराग अतिचार - जो पुरुष स्त्री के ऊपर तीव्र अभिलाप घरे, पराई स्त्री को देख कर मन में बहुत चाहना धरे, उस सी के देखे विना क्षणमात्र रह न सके; चलते फिरते उस स्त्री ही में चित्त रहे । अथवा देह में काम की वृद्धि के वास्ते अफयून, माजून, भांग, हड़ताल, पारा प्रमुख खावे, तीत्र काम से प्रीति करे। तब पांचमा अतिचार