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जैनतस्वादर्श
पूर्वोक्त दोनों अतिचारों को जो श्रावक जानता है, कि ये श्रावक को करने योग्य नहीं, अरु फिर जेकर करे, तो व्रतभंग होवे, परन्तु अतिचार नहीं ।
तीसरा अनंगक्रीडा अतिचार - अनंग नाम काम का है, तिस काम - कंदर्प को जागृत करना, आलिंगन, चुंबन प्रमुख करना, नेत्रों का हाव, भाव, कटाक्ष, हास्य, ठठ्ठा, मरकरी प्रमुख परस्त्री से करना । वह दिल में सोचता है, कि मैने तो परस्पर एक शय्या पर विषय सेवने का त्याग करा है, पूर्वोक्त अनंगक्रीडा तो नहीं त्यागी है । परन्तु वो मूढमति यह नही जानता है, कि ऐसा काम करनेवाले का व्रत कदापि न रहेगा । तथा मन से उस जीव ने महापाप का उपार्जन कर लिया । निश्चय नय के मत से उसका व्रत भंग भी हो गया । तथा अपनी सी से चौरासी आसनों से भोग करे, तथा पंदरा तिथि के हिसाव से स्री के अंगमर्द्दनादि करके काम जगावे । तथा परम कामाभिलापी होने से जब अपनी स्त्री का भोग न मिले, तब हस्तकर्म करे; स्त्री भी काम व्याप्त होकर गुणस्थान में कोई वस्तु संचार करके हस्तकर्म करे, तब स्त्री को भी अतिचार है । तिस वास्ते श्रावक को जैसे तैसे करके भी कामेच्छा घटानी चाहिये । क्योंकि विषय के घटाने से अरु वीर्य के रखने से बुद्धि, आरोग्य, दीर्घायु, बल प्रमुख की वृद्धि होती है । अधिक काम के सेवन से मन मलिन, पापवृद्धि, राज्यक्ष्मा - क्षय,