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________________ अष्टम परिच्छेद ७१ सद्गुरु की संगति से जव श्री जिनवाणी को सुना, तव चेतना जागृत मई, तब विचार हुआ कि अहो मैं समस्त परभाव से अन्य हूं ! अवन्धि, अछेद्य, अभेद्य, अदह्यधर्मी हूं! परन्तु इच्छा के वश होकर समस्त छेदन, भेदन, परिभ्रमणादि दुःखों को भोगने वाला परधर्मी बन रहा हूं! इस वास्ते समस्त परभाव का मूल जो इच्छा है, तिस को दूर करे । तब समस्त परभाव त्यागरूप चारित्र आदरे, साधुवृत्ति अंगीकार करे। तथा जिस जीव के इच्छा प्रबल होने से एक साथ सर्व परिग्रह त्यागने का सामर्थ्य न होवे, अरु दोष से डरे, तब गृहस्थ, धर्म के विषय में इच्छा परिमाण रूप व्रत को आदरे, सो इच्छा परिमाण व्रत नव प्रकार का है । सो कहते हैं: प्रथम धन-परिमाण व्रत-धन चार प्रकार का है। प्रथम गणिम धन-सो नारिकेल प्रमुख, जो गिनती से वेचने में आवे । दूसरा धरिम घन-सो गुड़ प्रमुख, जो तोल के बेचने में आवे । तीसरा परिछेद्य धन-सो सोना, रूपा, जवाहिर प्रमुख, जो परीक्षा से वेचने में आवे । चौथा मेयधन-सो दूध आदि वस्तु, जो माप के बेचने में आवे । यह चार प्रकार का धन है। इस का जो परिमाण करे, सो धन परिमाण व्रत है। दूसरा धान्य-परिमाण व्रत-सो धान्य चौवीस प्रकार का है। १. शालि, २. गेहू, ३. जुवार, १. बाजरी, ५. यव,
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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