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________________ अष्टम परिच्छेद १३९ प्रमाण समता में रहना, राग द्वेष रूप हेतुओं में मध्यस्थ रहना, तिस को पण्डित जन सामायिक व्रत कहते हैं। 'सम' नाम है रागद्वेष रहित परिणाम होने से ज्ञान दर्शन- चारित्ररूप मोक्ष मार्ग, तिस का 'आय' नाम लाभ - प्रशमसुखरूप; इनका जो इक भाव सो सामायिक है । मन, वचन और काय की खोटी चेष्टा - एतावता आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान त्याग के तथा सावद्य मन, वचन, काया, पाप चिंतन, पापोपदेश, पाप करणरूप वर्ज के श्रावक सामायिक करे । इहां आवश्यक शास्त्र में लिखा है कि, जब श्रावक सामायिक करता है. तब साधु की तरे हो जाता है । इस वास्ते श्रावक सामायिक में देवस्नात्र, पूजादिक न करे। क्योंकि भावस्तव के वास्ते ही द्रव्यस्तव करना है, सो भावस्तव सामायिक में प्राप्त हो जाता है । इस वास्ते श्रावक सामायिक में द्रव्यस्तवरूप जिनपूजा न करे । सामायिक करनेवाला मनुष्य बत्तीस दूषण वर्ज के सामायिक करे, सो बत्तीस दूषण में प्रथम काया के वारां दूषण कहते हैं । १. सामायिक में पग पर पग चड़ा करके ऊंचा आसन ( पलांठी ) लगा कर बैठे, सो प्रथम दूषण है। कारण कि * सामाइअंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणं बहुसो सामाइयं कुब्जा ॥ [ ० ६, श्रावकत्रताधिकार ]
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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