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अष्टम परिच्छेद
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प्रमाण समता में रहना, राग द्वेष रूप हेतुओं में मध्यस्थ रहना, तिस को पण्डित जन सामायिक व्रत कहते हैं। 'सम' नाम है रागद्वेष रहित परिणाम होने से ज्ञान दर्शन- चारित्ररूप मोक्ष मार्ग, तिस का 'आय' नाम लाभ - प्रशमसुखरूप; इनका जो इक भाव सो सामायिक है । मन, वचन और काय की खोटी चेष्टा - एतावता आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान त्याग के तथा सावद्य मन, वचन, काया, पाप चिंतन, पापोपदेश, पाप करणरूप वर्ज के श्रावक सामायिक करे । इहां आवश्यक शास्त्र में लिखा है कि, जब श्रावक सामायिक करता है. तब साधु की तरे हो जाता है । इस वास्ते श्रावक सामायिक में देवस्नात्र, पूजादिक न करे। क्योंकि भावस्तव के वास्ते ही द्रव्यस्तव करना है, सो भावस्तव सामायिक में प्राप्त हो जाता है । इस वास्ते श्रावक सामायिक में द्रव्यस्तवरूप जिनपूजा न करे ।
सामायिक करनेवाला मनुष्य बत्तीस दूषण वर्ज के सामायिक करे, सो बत्तीस दूषण में प्रथम काया के वारां दूषण कहते हैं ।
१. सामायिक में पग पर पग चड़ा करके ऊंचा आसन ( पलांठी ) लगा कर बैठे, सो प्रथम दूषण है। कारण कि
* सामाइअंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणं बहुसो सामाइयं कुब्जा ॥
[ ० ६, श्रावकत्रताधिकार ]