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जैनत स्वादर्श
गुरुविनय की हानि का हेतु होने से यह अभिमान का आसन है । इस वास्ते जिस बैठने से विनयगुण रहे, और उद्धताई न होवे, तथा अजयणा न होवे, ऐसे आसन पर बैठे ।
२. चलासन दोष – आसन स्थिर न रक्खे, वार वार आगे पीछे हिलावे, चपलाई करे । मुख्य मार्ग तो यह है कि, श्रावक एक जगे एक ही आसन पर सामायिक पूरा करे, अडिगने से रहे । कदापि रोग निर्बलतादि के कारण से एक आसन पर टिका न जाय, फिरना पड़े, तो उपयोग संयुक्त जयणापूर्वक चरवला से जहां तहां पूंजना प्रमार्जना करके आसन फिरावे । यह पूर्वोक्त विधि न करे, तो दूसरा दूषण लगे ।
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३. चलदृष्टि दोष – सामायिक करे पीछे नासिका ऊपर दृष्टि रक्खे, अरु मन में शुद्ध उपयोग रक्खे, मौनपने से ध्यान करे । यदि सामायिक में शास्त्राभ्यास करना होवे, तो यत्न पूर्वक मुख के आगे मुखवस्त्रिका देकर, दृष्टि पुस्तक पर रख कर पढ़े, अरु सुने । तथा जब कायोत्सर्ग करे, तब चार अंगुल पीछे पग चौड़ा राखे, ऐसी योग मुद्रा से खड़ा हो कर दोनों बाहु प्रलंबित करे, दृष्टि नासिका पर रक्खे, अथवा सज्जे- दहिने पग के अंगूठे पर रक्खे | यह शुद्ध सामायिक करने की विधि है इस विधि को छोड़ के चपलदिशा में आंखे फिरावे, सो
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पने से चकितमृग की तरे चारों तीसरा दोष है ।