SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम परिच्छेद १४५ दूसरा मनोदुष्पणिधान अतिचार-सो मन में कुन्यापार, चिंतन, क्रोध, लोभ, द्रोह, अभिमान, ईर्ष्या, व्यासंग, संश्रमचित्त सहित सामायिक करे। तीसरा वचनदुष्प्रणिधान अतिचार-सो सामायिक में सावध वचन बोले, सूत्राक्षर हीन पढ़े, सूत्र का स्पष्ट उच्चार न करे। ___चौथा अनवस्था दोषरूप अतिचार-सो सामायिक वक्तसर न करे। जेकर करे तो भी वे मर्यादा से आदर विना उतावल से करे। पांचमा स्मृतिविहीन अतिचार-सो सामायिक करी कि नहीं ! सामायिक पारी कि नहीं ! ऐसी भूल करे । अव दशमा दिशावकाशिक व्रत लिखते हैं:छठे व्रत में जो दिशाओं का परिमाण करा है, सो जहां तक जीवे तहां तक है । उसमें तो क्षेत्र दिशावकाशिक बहुत छूटा रक्खा है, तिस का तो रोज़ काम बत पड़ता नहीं; इस वास्ते दिन दिन के प्रति संक्षेप करे। जैसे आज के दिन दश कोस वा पन्दरां कोस वा पांच कोस, अथवा नगर के दरवाजे तक, कोस वा अर्द्धकोस, बाग बगीचे तक, घर की हद तक जाना आना है, उपरांत नियम करना; सो दिशावकाशिक व्रत है। ए छटे व्रत का संक्षेप रूप है। उपलक्षण से पांच अणुव्रतादिक का संक्षेप थोड़े काल का, सो भी इसी व्रत
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy