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________________ १४६ जैनतत्त्वादर्श में जान लेना । यह व्रत चार मास, एक मास, वीस दिन, पांच दिन, अहोरात्र, अथवा एक दिन, एक रात्रि, तथा एक मुहूर्त्तमात्र भी हो सकता है । इस का नियम ऐसे करे कि मैं अमुक प्रामादिक में काया करके जाऊंगा, उपरांत जाने का निषेध है। इस व्रतवाले जिस प्राणी के देश परदेश का व्यापार होवे, सो ऐसे कहे कि-मुझ को काय करके इतने क्षेत्र उपरांत जाना नहीं । परन्तु दूर देश का कागज प्रमुख लिखा हुआ आवे, सो वांचूं, अथवा कोई मनुष्य मेजना पड़े, उसका आगार है। परदेश की बात सुनने का आगार है । अरु जिसका दूर का व्यापार नहीं होवे, सो चिट्ठीखतपत्र भी न वांचे, अरु आदमी भी न भेजे, तथा चित्त की वृत्ति से जेकर संकल्पविकल्प न होवे, तो परदेश की बात भी न सुने। जेकर नहीं रहा जावे, तो आगार रक्खे । परन्तु जान करके दोष न लगावे । यह देशावकाशिक व्रत सदा सवेरे के वक्त चौदह नियम की यादगीरी में उपयोग से रक्खे, अरु रात्रि को जुदा रक्खे। यह व्रत गुरुमुख से जैसे धारे तैसे पाले, अरु इस व्रत के पांच अतिचार टाले । सो कहते हैं: प्रथम आणवण प्रयोग अतिचार-नियम की भूमिका से बाहिर की कोई वस्तु होवे, तिसकी गरज पड़े, तब विचारे कि, मेरे तो नियम की भूमिका से बाहिर जाने का नियम है, परन्तु कोई जाता होवे, तो तिसको कह करके वो वस्तु
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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